भारत के बौद्धों में हर वर्ष दीवाली अर्थात दीपावली को लेकर बड़ा ही संदेह निर्माण हुआ पाया जाता है. कुछ लोग प्रचार कर रहे है कि दीवाली बौद्धों का त्योंहार है. उन्होंने उसे बड़ा ही उम्दा सा नाम दिया है – दीपदानोत्सव
मेरे अल्प अभ्यास में किसी बौद्ध साहित्य में इस तरह का नाम नहीं मिला. न ही मेरे अल्प अभ्यास से यह साबित हो पाया कि यह दीवाली बौध्दों का त्यौहार है. कुछ लोगों ने जोड़ जाड कर गलत संदर्भो के आधार पर दीवाली को बौद्धों पर थोपने का प्रयास किया है. मैंने जो अभ्यास किया उससे इस नतीजे पर पहुँची हूँ कि बौद्धों ने दीवाली किसी भी स्वरुप में नहीं मनानी चाहिए।
नीचे दिये विवरण से स्पष्ट होगा कि दीवाली का दावा पुर्णतः गलत और बेबुनियाद है –
(१) यदि दीपदानोत्सव का त्यौहार असोक ने शुरू किया होता या बौद्ध परम्पराओं में अस्तित्व में होता तो वह भारत के बाहर बौद्ध देशों में जैसे श्रीलंका, चाइना, जापान, इंडोनेशिया आदि में आज भी पाया जाता, लेकिन ऐसा नहीं है. (परन्तु थाईलैंड में ब्राहमणों की घुसपैठ के कारण वहां कुछ गिने चुने विहारों में ही गणपति और लक्ष्मी की मूर्ति भी बनाई गयी है और दीवाली भी मनाई जाने लगी है). विशेष यह है कि उन देशों ने असोक जयंती और सभी पूर्णिमा उत्सव मनाये जाने की सत्यता के साथ ही ऐसे किसी उत्सव को मनाये जाने को नकारा है। तथपि विजयादसमी और सारी पोर्णिमाये, अमावस्याये, अष्टमी, चतुर्थी सारे बौद्ध देशों में मनाए जाते है. और इन सारी तिथियों पर बड़ी संख्या में दीप जलाये जाते है। भारत के तिब्बती बौद्ध विहारों में यह देखने को मिलेगा। अचरज तो तब होता है कि असोक ने बौद्ध धर्म की सारी घटनाओं की तिथिओं का उल्लेख किया है लेकिन जिसने ८४००० हजार स्तूप सारी दुनिया में बनवाये, उसने उन पर दिए जलाने का आदेश भी दिया, वह असोक उस दिन की तिथि का उल्लेख करना कैसे भूल गया। ऐसा हो ही नहीं सकता! ८४००० स्तूपों का निर्माण असोक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सपना या उद्देश था। अगर उसने वहां पर किसी विशिष्ट दिन दिए जलाने का आदेश दिया होता तो उसने उसका उल्लेख किसी ना किसी शिलालेख में अवश्य करवाया होता. जैसे की सातवे स्तंभ के शिलालेख पर हर पोर्णिमा, अमावस्या को पवित्र मानने के आदेश का उल्लेख है. पाकिस्तान में स्थित शाहबाज गढ़ी के स्तूप के शिलालेख पर धम्मविजय दिवस का उल्लेख है।
(२) दीपदानोत्सव के विषय पर जिन्होंने किताब लिखी है उन लेखकों से मैंने खुद बात करके अश्विन या कार्तिक अमावस्या को उत्सव मनाये जाने के सबूत माँगे, तब उन्होंने स्वीकार किया कि कही पर भी ऐसा उल्लेख नहीं है।
(३) मेरे पास असोकवदान के दो संस्करण है, लेकिन उसमे भी कही पर भी असोक ने अश्विन अथवा कार्तिक अमावस्या को ऐसे किसी उत्सव को मनाने की बात अंकित नहीं है. और यह सब जानते है कि असोक ने अपने हर आदेश को शिलालेखों के रुप में लिख रखा है. तब उसने इतने महत्वपूर्ण उत्सव की बात कैसे छोड़ दी!
(४) कई लोगों ने भावनावश दीवाली के मजबूत समर्थन में वाराणसी के एक बौद्ध विद्वान की पोस्ट सब जगह फॉरवर्ड की है. वाराणसी के विद्वान द्वारा दिए गए सभी उद्धरण झूठ और गलत है, केवल एक ही सच के कि, सम्राट असोक ने ८४००० स्तूप बनवाये थे और वहाँ दीप प्रज्वलित करने का आदेश दिया था. उनके पोस्ट में वर्णित झूठ इस प्रकार है –
– राजा हर्षवर्धन लिखित ‘नागानन्द’ में कही पर भी दिपदानोत्सव आश्विन या कार्तिक अमावस्या को ऐसे किसी उत्सव को मनाये जाना का लिखा नहीं है।
– दीपवंश, महावंश में भी कही पर भी अश्विन या कार्तिक अमावस्या को दीपदानोत्सव (दिवाली) मनाये जाने का उल्लेख नहीं है.
– साथ ही उनके द्वारा वर्णित यह भी झूठ है कि भगवान् बुद्ध बुद्धत्व प्राप्ति के बाद पहली बार जब कपिलवस्तु आये थे वह दिन अश्विन अमावस्या का था. जब कि सामान्य से सामान्य बौद्ध उपासक भी जानता है कि भगवान् बुद्ध ‘फाल्गुन पूर्णिमा’ (होली वाला दिन) को पहली बार कपिलवस्तु आये थे.
(५) अतएव, मै अपने सर्वप्रथम विचार का पुनः उल्लेख करना चाहूँगी कि अगर आप दीपदानोत्सव मनाना चाहते हो, तो जैसे कि इन सभी लेखकों ने स्पष्टरूप से लिखा है की अशोक ने स्तूपों पर दीप प्रज्वलित करने का आदेश दिया था (जिस तथ्य को मै भी स्वीकार करती हूँ) उस तथ्य को मान कर हम लोगों ने अपने शहर गाँव के समीप के बुद्ध स्तूप, शिलालेख, अशोक कालीन प्राचीन विहार, अशोक स्तंभ या बौद्ध लेणी (बौद्ध गुफा) पर अश्विन अथवा कार्तिक अमावस्या को ५ दिन जाकर बुद्ध वंदना के साथ दीपप्रज्वलित या दीप-अर्पित करने चाहिए (अपनी बस्ती या घर या बस्ती के विहार में दीपदानोत्सव ना करे). कुछ लोगों ने अपनी बस्ती में दिए हाथ में लेकर जुलुस निकालना चालू किया है.
(६) दिवाली के दिन पंचशील ध्वज और दिए हाथ में लेकर जुलुस निकालने की प्रक्रिया बड़ी ही बचकानी प्रतीत होती है. देखने वाले हिन्दू लोग तो इन बौद्धों की इस हरकत पर मन ही मन हँसते होंगे और आपस में ऐसे बौद्धों की खिल्ली उड़ाते होगे. वे अवश्य सोचते होंगे ये दलित या बौद्ध आज तक फटाके फोड़कर दिवाली मनाते थे, लेकिन अब बौद्ध बन जाने के बाद अपने मन में दिवाली मनाने की इच्छा को दबाने के लिए (और साथ में भारत के महत्वपूर्ण त्यौहार का विरोध करने के लिए) ऐसे उटपटांग हाथ में ध्वज और दिए लेकर रास्ते पर चल रहे है.
विशेष् रूप से ध्यान देने की बात यह है कि भले ही बौद्ध लोग जुलुस निकालकर ब्राह्मणी दिवाली का विरोध प्रदर्शन करने का प्रयत्न करते हो, मात्र वास्तव में इस प्रक्रिया द्वारा इस त्यौहार का विरोध ना होकर, दिवाली त्यौहार को समरस बनाने की प्रक्रिया है. इसे समझना जरूरी है.
(७) सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, कोई भी सामाजिक क्रांति प्रस्थापित व्यवस्था को विरोध की भावना या प्रक्रिया के द्वारा ही संपन्न होती है. अर्थात कोई भी परिवर्तन समरसता या मिलावट के विचार या मिलावटी संस्कृति द्वारा संपन्न नहीं होता. इसलिए हमारे लोग यदि दिवाली को किसी अन्य तरीके से मनाने का प्रयास करे तो हिंदुओं द्वारा यह कहा जायेगा कि ‘हम लक्ष्मी की पूजा करते है, तो उसके बजाय ये लोग बुद्ध की पूजा करते है’. और इस प्रकार से बाबासाहब को अपेक्षित किसी भी सामाजिक परिवर्तन की कल्पना नहीं की जा सकती. (बाबासाहब भी अगर चाहते तो सावरकर की बात मानकर हिन्दू धर्म में थोड़े बहुत सुधार मानकर हिन्दू धर्म को ही अपनाए रख सकते थे लेकिन उन्होंने हिन्दू धर्म को पूरी तरह से त्यागकर बौद्ध धर्म को अपनाया है).
(८) अभी हम लोगों ने होली के त्यौहार के विरोध में, अपने लोगों द्वारा नजदीकी प्राचीन स्तूप, लेणी, अशोक स्तंभ, शिलालेख, मूर्ति पर जाकर दिनभर धम्म संगोष्टी करना शुरू किया है. क्योंकि बौद्धों ने होली नहीं मनाना है. लेकिन हम अगर अपनी बस्ती या घर में रहे तो कोई ना कोई आकर रंग लगाकर जायेगा ही और इस तरह आप होली खेल ही लोगे. बच्चों को तो रोका ही नहीं जा सकता. वास्तव में होली के दिन फाल्गुन पोर्णिमा होती है. और बौद्ध धम्म की सबसे पवित्र और प्राचीन परंपरा के अनुसार हर पोर्णिमा को नजदीकी बुद्ध स्तूप, लेणी पर जाकर बुद्ध वंदना अर्पण करना बौद्धों का कर्तव्य है. इसलिए अब बौद्धों ने होली के दिन इस परंपरा को निभाकर होली नहीं खेलने का अपना कर्तव्य पूरा करना शुरू किया है.
(९) दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि कुछ हिन्दू कैलेन्डर में दिवाली ‘कार्तिक अमावस्या’ को दर्शाई जाती है तो कुछ हिन्दू कैलेन्डर में ‘अश्विन अमावस्या’ को. वास्तव में मध्य और दक्षिणी भारत में ‘विक्रम संवत’ के हिसाब से कैलेन्डर तयार किये जाते है तो उत्तरी भारत में ‘शक संवत’ के हिसाब से. इसलिए उत्तरी भारत के कैलेन्डर में दिवाली कार्तिक अमावस्या को दर्शाई जाती है तो दक्षिणी भारत के कैलेन्डर में वह अश्विन अमावस्या को. कुछ भाग में तो पूरा संभ्रम है. इतना ही नहीं तो दिवाली के अंत में एक देव दिवाली भी मनाई जाती है जो उत्तरी भारत के कैलेन्डर में कार्तिक माह के अंत में तो अन्य भाग विशेषत महाराष्ट्र कैलेन्डर में मार्गशीर्ष महीने के प्रतिपदा को मनाई जाती है. इसतरह विक्रम संवत और शक संवत में १३५ साल का अंतर है. शक संवत बौध्द शक राजा कनिष्क ने शुरू किया था तो विक्रम संवत वैदिक राजा विक्रमादित्य ने। इस तरह तिथियों में भी संभ्रम है और राम के वापस आने के दिन में भी. तो फिर कौन सी तिथि को हिन्दू अर्थात ब्राह्मणों के गुलाम पवित्र मानते है, यह वे खुद भी नहीं जानते ?
(१०) जैन धर्म में दिवाली का अलग महत्व है. इस दिन भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ था। (इस बात पर ध्यान दें कि महावीर की मृत्यु को मात्र ‘निर्वाण’ कहा जाता है, जबकि बुद्ध के संबंध में उसे ‘महापरिनिर्वाण’ से संबोधित किया जाता है. यह एक अलग विषय है)। वे इस दिन को पवित्र मानकर दिए जलाते है और अपने व्यवसाय का नया बहीखाता तयार करते है।
(११) इस बात का मैं पूर्ण समर्थन करती हूँ कि बौद्ध अर्थात मूल भारतीय उत्सवों का विकृतिकरण ब्राह्मणों ने किया था, लेकिन इसका यह मतलब नही होता कि उस त्यौहार का विरोध करने के लिए हम कोई विकृत नयी परम्परा शुरू करे! जैसे कि कुछ लोग दीवाली के दिन सफ़ेद कपड़े पहनकर, हाथ में पंचशील ध्वज और दिए लेकर, बुद्धं सरणं का घोष करते हुए रास्तों पर जुलुस निकालते है। कुछ लोग अपने घर के पास के विहार में जाकर वंदना या ध्यान विपस्सना करते है। वे तर्क देते है कि हमारे विहार भी तो लेणी ही है. अब इन्हें कौन समझाए कि भाई आपके पास अपने प्राचीन स्थलों को भेट देने का कोई प्रोग्राम है भी या नहीं. विहार में तो पुरे साल भर जाते ही रहते है। साल में एक या दो बार तो अपने प्राचीन स्थलों पर भी भेंट देना चाहिए या नहीं। वैसे भी “हर रविवार को बुद्ध विहार में जाकर बुद्ध वंदना करने के” बाबासाहब के अंतिम आदेश का पालन भी हमारे लोग कहाँ करते है! मुझे बड़ा ही आश्चर्य होता है बौद्धों के आलस और उदासीनता को देखकर।
खैर, दीवाली का हमें विरोध तो करना है, लेकिन इस बात का ध्यान रखना होगा कि हमारी क्रिया हास्यापद ना लगे। हमारा सुझाव यह है कि इस दिन या इन दिनों में छुट्टिया होती है. हम लोग इन दिनों में बुद्ध लेणी और स्तूप पर यात्रा का आयोजन करे। वैसे भी हम दीवाली या दीपावली को लेकर सम्राट अशोक और बुद्ध स्तूपों को याद करते है, तो फिर क्यों ना हम प्रतिवर्ष भिन्न भिन्न जगहों पर स्थित बुद्ध स्तूपों और लेणियों को भेंट देकर वहां जाकर बुद्ध वंदना अर्पण करने की सबसे पवित्र परम्परा का निर्वाह करे. इस तरह हमारे बच्चों को भारत के वैभवशाली बौद्ध इतिहास का परिचय होगा और साथ ही बौद्ध धरोहरों का संगोपन भी. जैनों में जिसतरह से उनके प्राचीन स्थलों पर भेंट और पूजा पाठ का प्रयोजन होता है. उसी तरह से हम लोग भी दिवाली की छुट्टियों का उपयोग अपने प्राचीन बुद्ध स्तूपों को भेंट देने के लिए करे। भारत के हर राज्य में प्राचीन वैभवशाली बौद्ध स्तूप और लेणीयाँ है। इससे बौद्दों का बौद्ध स्थलों पर आवागमन बढेगा और बौद्ध लोगों का उन जगहों पर अस्तित्व भी। आवागमन यह एक आंदोलन (पेंडुलम के क्रियाशील रहने की प्रक्रिया) का भाग है. इस आवागमन के आंदोलन का ही उपयोग हिन्दू और जैन धर्म में बखूभी निभाया जाता है. हमें भी आवागमन के आंदोलन को समझना होगा। लेखिका: S Paramita